Monday, May 21, 2018

यदि तुम मुझको जान सके हो

यदि तुम मुझको जान सके हो
इतना साथ निभा देना
मेरे होने का आशय
दुनिया को समझा देना
मैं सक्षम पर वक़्त नही था
जो सम्मुख वह सत्य नही था
अंतस में जो पीर सिंधु था
जिसका तुमको ठौर पता था
अवसर जान उचित उपक्रम से
इक इक कण पिघला देना
यदि तुम मुझको जान सके हो

सीना तान खड़ा जो बाहर
भीतर रेंग रेंग कर चलता
ये कैसा पुरुषार्थ, योग है
घुटने टेक समर्पण करता
जो घृणित है जो निषेध है
जो अधर्म का अनुच्छेद है
ईश्वर की अवज्ञा करता
बार बार वह कृत्य उभरता
बंधा हुआ वह किसके वश में
चीख चीख कर गा देना
यदि तुम मुझको जान सके हो

मैं मिट्टी कच्ची गीली सी
देव मेरा एक कुम्हार था,
नही त्रुटि कोई संरचना में
न श्रम में कोई विकार था
जो तालीम मिली वंदन कर
संकल्पों का अभिनंदन कर
मैं नित जीवन प्रथा निभाती
टूट फूट कर फिर जुड़ जाती
मन का घट रिस रिस कर टूटा
किस कारण जीवन था रूठा
क्यों आघात सहन कर पाई
कुछ तो पता लगा लेना
यदि तुम मुझको जान सके हो।

वृक्ष स्वयं ही फल खायेगा
क्या ऐसा भी युग आएगा
नदिया नीर स्वयं पी जाये
गागर सागर नजर न आये
सीमाओं को तोड़ मोड़ कर
सृजन स्वयं सृष्टा बनता है
जीवन दूषित होकर प्रतिक्षण
मृत्यु की राहें तकता है
कब तक ईश्वर मौन रहेगा
कब तक यह तांडव ठहरेगा
मेरे भय की झलक समूची
मानवता को दिखला देना
यदि तुम मुझको जान सके हो
इतना साथ निभा देना

         देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Monday, May 7, 2018

दुआ

जब कर्म और फल की प्राचीन परम्परा ने अपना जाल फेंका,
तो एक रात सरकारी अस्पताल के बाहर फूटपाथ से मैंने चाँद को देखा।
बादलों की गिरफ्त से छूट कर वह अभी अभी निकला था,
और पहले से अधिक चमकीला और उजला था।
इससे पहले मैंने कभी उसे ऐसे नहीं माना था,
बस आकाश में घूमता एक खगोलीय पिंड ही जाना था।
अब चन्द पल मुश्किलों के उसके साथ बांटता हूँ,
और किसी अपने की सलामती की दुआ मांगता हूँ।
……………..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

जिंदगी

तू खुदा है इसका मुझे ऐतबार है ,
तेरी बनाई हर शै से मुझको प्यार है,
तू लाख ज़ख्म दे मुझे मार ही डाले न क्यों
मैं ज़िन्दगी हूँ मौत से ग़म से कभी हारूंगी न।

Thursday, May 3, 2018

छोटी है ना

माँ तू मेरी चिंता मत कर
छोटी है ना
सुबह से पहले वो उठ जाती
भइया भइया शोर मचाती
सूरज का आशीष मांगकर
चंदा को है गीत सुनाती
धमा चौकड़ी दिन भर करती
आंगन में चंचलता भरती
डांट डपटकर धाक जमाती
उल्टे को सीधा कर जाती
कभी सुबकती भोली भाली
बातें उसकी बड़ी निराली
खाली पेट नही हूँ चुप कर
उसने बनाई
दो रोटी है ना
माँ तू मेरी चिंता मत कर
छोटी है ना
सब कुछ तौर तरीके से है
सुंदर और सलीके से है
शिल्पकार है चित्रकार है
मधुर साज की मृदुपुकार है
दीवारों पर चित्र सजे हैं
आंगन कमरे मित्र लगे हैं
कल कल करता है पनियारा
खूब महकता है गलियारा
अस्त ब्यस्त नही है कुछ
हर कोने को संजोती है ना
माँ तू मेरी चिन्ता मत कर
छोटी है ना ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो कैसे जानोगे तुमने देखा ही नही अपने अंतर्मन में कभी। हर्ष विषाद से आच्छादित अनंत असीमित किंतु अनुशासित बेहद सहज सरल धवल उज्...