Thursday, August 30, 2018

ना रोको मुझे अब जाने दो

टूट गए सब नेह के नाते
टूट गया विश्वास
अर्थ नही फिर जीवन का
ना बाकी कोई आस

अब पीड़ा को अपनाने दो
ना रोको मुझे अब जाने दो

दीप जलाया जो दुख का
रोशन है पीड़ा का आंगन
अब दर्द लिखूं या दीप लिखूं
ब्याकुल मन की है ये उलझन

इस उलझन को सुलझाने दो
ना रोको मुझे अब जाने दो

मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में
नही मिले भगवान
जिसने सच्ची राह दिखाई
वो झूठा इंसान

अब अंतर्मन को जगाने दो
ना रोको मुझे अब जाने दो।

अंतर्मन पर मन भारी है
यह कैसा अज्ञान
बांध सकूं निज मन का विप्लव
दया करो हे दयानिधान

मेरा मुझको हो जाने दो
ना रोको मुझे अब जाने दो।

-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

वो पल

हां..ये वही खेत है
वही आम का पेड़ है
जिसकी टहनियों की
बाहें थामे
मुस्कुराती हुई सी तुम
बेहद चंचलता से
टहनियों के बीच से
झांकती
मुझे आवाज देती
उस एक पल को
कैद करने की
जिद करती

हां..कैद है वो
पल मेरी आंखों में
ठीक वैसे ही
जैसे तुम चाहती थी
और कैद हो गई हो
तुम भी बिल्कुल
उस पल की तरह
मेरी आँखों मे
मेरे हृदय में
जब चाहूं
जहां चाहूं
तुम्हे देख सकता हूँ
तुमसे बातें कर सकता हूँ

और तुम मिलोगी
वहीं पर मुझे
हर बार,बार बार
वैसे ही मुस्कुराती हुई
आम की टहनियों की
बाहें थामे ।

(सीमा वर्मा"अपराजिता"की स्मृति में।)

-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Tuesday, August 28, 2018

गई तू कहाँ छोड़ के

*गई तू कहाँ छोड़ के*

सावन सूना पनघट सूना
सूना घर का अंगना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।

दिन चुभते हैं काटों जैसे
आग लगाए रैना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।

बचपन के सब खेल खिलौने
यादों की फुलवारी
खुशियों की छोटी साइकिल
पर करती थी तू सवारी

विरह,पीर के पलछिन देकर
हमें रुलाए बिधना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।

बाग बगीचे अमराई में
पपीहा कोयल कूके
सखियों के संग हंसी ठिठोली
करती तू मन मोहे

दे तुझको आशीष सभी
तू ऐसे हंसती रहना।

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।

इंद्रधनुष सी रंग बिरंगी
सपनो की तस्वीरें
अरमानो की चूनर ओढ़े
बुनती है तदबीरें

जब तक आस न हो पूरी
अब नही है दिल मे चैना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के ।।

ग़म के बादल गरज बरस कर
रोज भिगोते दामन
पीर पहाड़ सी बांधे तन को
ब्याकुल मन का मधुबन

कहाँ छिपाऊँ तुझको कोई
जुगत है बाकी अब ना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।

गुजरे कितने दिन राखी के
कितने बांधे धागे
फिर भी साथ तुम्हारा छूटा
हम है बड़े अभागे

हाय ! तुम्हारी सौ टूटी
अब अश्रु पलक पर हैं ना

बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।

छोटी बहन सीमा वर्मा"अपराजिता" की स्मृति में आज रक्षाबंधन के दिन हृदय के उदगार।

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"😭😭

Monday, May 21, 2018

यदि तुम मुझको जान सके हो

यदि तुम मुझको जान सके हो
इतना साथ निभा देना
मेरे होने का आशय
दुनिया को समझा देना
मैं सक्षम पर वक़्त नही था
जो सम्मुख वह सत्य नही था
अंतस में जो पीर सिंधु था
जिसका तुमको ठौर पता था
अवसर जान उचित उपक्रम से
इक इक कण पिघला देना
यदि तुम मुझको जान सके हो

सीना तान खड़ा जो बाहर
भीतर रेंग रेंग कर चलता
ये कैसा पुरुषार्थ, योग है
घुटने टेक समर्पण करता
जो घृणित है जो निषेध है
जो अधर्म का अनुच्छेद है
ईश्वर की अवज्ञा करता
बार बार वह कृत्य उभरता
बंधा हुआ वह किसके वश में
चीख चीख कर गा देना
यदि तुम मुझको जान सके हो

मैं मिट्टी कच्ची गीली सी
देव मेरा एक कुम्हार था,
नही त्रुटि कोई संरचना में
न श्रम में कोई विकार था
जो तालीम मिली वंदन कर
संकल्पों का अभिनंदन कर
मैं नित जीवन प्रथा निभाती
टूट फूट कर फिर जुड़ जाती
मन का घट रिस रिस कर टूटा
किस कारण जीवन था रूठा
क्यों आघात सहन कर पाई
कुछ तो पता लगा लेना
यदि तुम मुझको जान सके हो।

वृक्ष स्वयं ही फल खायेगा
क्या ऐसा भी युग आएगा
नदिया नीर स्वयं पी जाये
गागर सागर नजर न आये
सीमाओं को तोड़ मोड़ कर
सृजन स्वयं सृष्टा बनता है
जीवन दूषित होकर प्रतिक्षण
मृत्यु की राहें तकता है
कब तक ईश्वर मौन रहेगा
कब तक यह तांडव ठहरेगा
मेरे भय की झलक समूची
मानवता को दिखला देना
यदि तुम मुझको जान सके हो
इतना साथ निभा देना

         देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Monday, May 7, 2018

दुआ

जब कर्म और फल की प्राचीन परम्परा ने अपना जाल फेंका,
तो एक रात सरकारी अस्पताल के बाहर फूटपाथ से मैंने चाँद को देखा।
बादलों की गिरफ्त से छूट कर वह अभी अभी निकला था,
और पहले से अधिक चमकीला और उजला था।
इससे पहले मैंने कभी उसे ऐसे नहीं माना था,
बस आकाश में घूमता एक खगोलीय पिंड ही जाना था।
अब चन्द पल मुश्किलों के उसके साथ बांटता हूँ,
और किसी अपने की सलामती की दुआ मांगता हूँ।
……………..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

जिंदगी

तू खुदा है इसका मुझे ऐतबार है ,
तेरी बनाई हर शै से मुझको प्यार है,
तू लाख ज़ख्म दे मुझे मार ही डाले न क्यों
मैं ज़िन्दगी हूँ मौत से ग़म से कभी हारूंगी न।

Thursday, May 3, 2018

छोटी है ना

माँ तू मेरी चिंता मत कर
छोटी है ना
सुबह से पहले वो उठ जाती
भइया भइया शोर मचाती
सूरज का आशीष मांगकर
चंदा को है गीत सुनाती
धमा चौकड़ी दिन भर करती
आंगन में चंचलता भरती
डांट डपटकर धाक जमाती
उल्टे को सीधा कर जाती
कभी सुबकती भोली भाली
बातें उसकी बड़ी निराली
खाली पेट नही हूँ चुप कर
उसने बनाई
दो रोटी है ना
माँ तू मेरी चिंता मत कर
छोटी है ना
सब कुछ तौर तरीके से है
सुंदर और सलीके से है
शिल्पकार है चित्रकार है
मधुर साज की मृदुपुकार है
दीवारों पर चित्र सजे हैं
आंगन कमरे मित्र लगे हैं
कल कल करता है पनियारा
खूब महकता है गलियारा
अस्त ब्यस्त नही है कुछ
हर कोने को संजोती है ना
माँ तू मेरी चिन्ता मत कर
छोटी है ना ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Saturday, April 28, 2018

आना तू फिर से

ओ मेरी रानी
तेरी कहानी
तुझको सुनाऊंगा
बातें बनाऊँगा
आना तू फिर से
आना तू फिर से
भइया मै तेरा
कन्हैया मै तेरा
नाचूंगा गाऊंगा
बंशी बजाऊंगा
आना तू फिर से
आना तू फिर से।।
आंगन की कलियां
मुहल्ले की गलियां
झोंके पवन के
झरोखे गगन के
गुमसुम हैं सारे
तुमको पुकारे
आना तू फिर से
आना तू फिर से
किताबों के पन्ने
खुले रह गए
कि कुछ पढ़ के
तुमने छोड़ा जहां था
कलम की उमंगों की
ख्वाहिश अधूरी
कि कुछ लिख के
तुमने रोका जहां था
करने को पूरी
कहानी अधूरी
आना तू फिर से
आना तू फिर से।
ग़म की चुभन में
हंसी मखमली सी
अंधेरों में जीवन की
तुम रोशनी सी
पर्वत सरीखी
तुम्हारी ऊंचाई
पीड़ा की आंधी
हिला भी न पाई
सहनशीलता की
प्रतिमान बनकर
धरा पर धरा की
पहचान बनकर
आना तू फिर से
आना तू फिर से।
अब हौंसलों में
रौनक नही है
तुम जो गए
कोई दौलत नही है
खाली है कमरा
आंगन बगीचा
सूखी लताओं को
तुमने था सींचा
जूही के पत्तों पे
ओस की बूंदे
तरसे तुम्हारी
निगाहों को ढूंढे
भरने को जीवन में
जीवन की धारा
हृदय ने लरज़ते
लबों से पुकारा
आना तू फिर से
आना तू फिर से।।

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Friday, April 20, 2018

आखिर क्यों तुम समझ न पाए

आखिर क्यों तुम समझ न पाए

कब से बैठी आस लगाये
कितने दिवस के बाद तुम आये
मुझको है जाने की जल्दी
आखिर क्यों तुम समझ न पाए
वक़्त बड़ा बेरहम हुआ है
तुम्हे मिला न मेरा हुआ है
बेबस और लाचारी सी है
श्वासें भारी भारी सी हैं
विकट अश्रु के बादल छाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

तुमको मैंने दर्पण जाना
पर तुमने ही न पहचाना
टुकड़े टुकड़े तोड़ रही है
कैसे मुझे निचोड़ रही है
पीर प्रलय के अक्स दिखाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

एक कदम भी चलना मुश्किल
दृश्य लक्ष्य के लगते धूमिल
आओ फिर से साहस भर दो
कलुषित मन को अरुणिम कर दो
पुष्प उम्मीदों के मुरझाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

मद्धिम सा उजियारा देखा
कल फिर टूटा तारा देखा
अंतस में एक इच्छा जागी
किंतु हाय ! मै बड़ी अभागी
शब्द हृदय में रही छुपाये
आखिर क्यों तुम समझ न पाये

उत्सव के दिन साथ गुजरते
पीड़ा में क्यों तन्हा रहते
खुद से कितनी बातें कर लूं
तुम बिन रिक्त रहूं,जो भर लूं
मन का हर संदेश सुनाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

अब आये भी तो गैरों जैसे
हाल न पूछा अपनों जैसे
हृदय लिपट कर जो रो पाती
शायद फिर जीवित हो जाती
प्रतिक्षण थी बाहें फैलाये
आखिर क्यों तुम समझ न पाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए।

            देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Thursday, April 12, 2018

स्त्री

स्त्री
शौक रखती है जीत के
मुस्कुराना जानती है
दर्द को गले लगाकर
हराना जानती है
न जाने कितनी बार
हुई पीड़ा बृहद अपार
हाथ नही जोड़ती
टूट जाती है
उम्मीद नही छोड़ती
पलक पुलक अधीर सी
बांधकर रखती है
स्थिर हृदय सुधीर सी
खुद बंध जाती है
स्नेह से, ममता से
नही भूलती है,
कोई भी किरदार
संजीदा,चंचल
मासूम- मजेदार
तुम भूल जाओ
खो जाओ
अपने मे कहीं
वो याद रखती है
सोमवार से लेकर
हर इतवार,
सिर्फ तुम्हारे लिए
न जाने कौन-कौन से
व्रत,संकल्प लिए
लड़ जाती है
हर बला से
हर ब्यवधान से
जो तुम्हारी राह रोके
खड़े है
तुम्हे मालूम नही
और तुमने देखे भी नही
जश्न में डूबे पड़े हैं
जो तुम्हारे दिन
तुम्हारी रातें
उनके पीछे छुपी है
कितनी अनसुनी
अनकही बातें
कितनी पीड़ा
कितनी कराह है
यूँ ही नही आसान
तुम्हारी हर राह है,
पर क्या तुम
समझ पाओगे,
जान पाओगे
शायद नही
शायद नही
क्योकि तुम बेहद
व्यस्त हो
अपने मोद में
अपने प्रमोद में
मदमस्त हो,
सुख में,ऐश्वर्य में
पर शायद
'आनंद' में नही
'आनंद'
जिसे वो जानती है
जीती है,गाती है
रोती है ,अश्रु बहाती है
तुम्हारे साथ मिलकर
उत्सव मनाती है
और तुम एक 'स्त्री' के इतर
उसे कुछ नही जानते हो
न पहचानते हो
बस बांध देते हो
रिश्तों के अबूझ
सवालों में
जिनके उत्तर नही है
तुम्हारे भी पास,
तुम्हे होगा एहसास
बेशक,जरूर
लेकिन तुम जता नही पाओगे
बस अकेले अंधेरे में कहीं
तन्हा उदास, मजबूर
रोओगे,पछताओगे
छोड़ना चाहोगे
अपना सुंदर संसार भी
तब भी
कहीं से
एक आवाज आएगी
तुम्हे झकझोरेगी
जगाएगी
तुम आज भी
अकेले नही हो
देखो अपने हृदय की
गहराइयों में
मैं हूँ आज भी
तुम्हारे पास
सदा से
तुम्हारे साथ थी
तुम अकेले नही हो।
और मिल जायेगी
तुम्हे जीने की उम्मीद
फिर से
और वो मुस्कुराएगी
उसी 'आनंद' में
जो परे है
तुम्हारी सोच
तुम्हारी कल्पनाओं से
फिर से ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Tuesday, April 10, 2018

प्रेम और वियोग

हो जाती कैसे अनदेखी
गलतियां हुई सब ने देखी
कुछ तंज कसे
कुछ क्रोध किये
कुछ बात किये
कुछ शोध किये
निज प्रभुता का गुणगान किये
कुछ निंदा रस का पान किये ।।
नियम नीति के बाण चलाना
मुश्किल है उसको समझाना
वो अड़ी रही
वो डटी रही
सब के सम्मुख
वो खड़ी रही
निज अनुभव का संज्ञान लिए
चल पड़ती है मुस्कान लिए ।।
उपदेश ज्ञान के न देना
जैसे रहती, रहने देना
कुछ पूंछ रही
कुछ ढूंढ रही
वो देख रही
जो चाह रही
खुद पे ना ऐसे इतराना
जो दर्पण हो सम्मुख जाना ।।
उसको मत मानो बस उसमे
बंटी हुई है, मुझमे तुझमें
तुम रोते हो
वो रोती है
मैं रहता हूँ
वो होती है
खुद से यूँ जो दूर है हम तुम
बेबस और मजबूर है हम तुम ।।
बंट हर हिस्से में मुस्काना
आसान नही है बंट जाना
मिली जुली सी
खिली खिली सी
मधुर मृदुल सी
भली भली सी
क्षण भर का न समय गंवाना
जब भी पास बुलाये आना ।।
नही पराजित है अपराजित
काल गति है अति मर्यादित
करुण पुकार
वो अश्रुधार
हृदय विमुख
न सुने चीत्कार
विरह वियोग विक्षोभ रहेगा
जीवन भर अफ़सोस रहेगा ।।
..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Tuesday, April 3, 2018

दोगलापन

क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
अपनत्व का मुखौटा ओढ़े
तारीफों के पुल बांधते
झूठी तारीफों के पुल
जिनके पार तुम्हारी
अनगिनत अतृप्त
आकांक्षाएं
मेरा परिहास करती सी
मेरे अस्तित्व पर
प्रश्नचिन्ह लगाती ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
प्रेम की व्याख्या लिए
जिन पर तुम स्वयं
खरे नही उतरते
थोपना चाहते हो
झूठ और फरेब में डूबे
सम्मान के लुभावने शब्द
जिनमे केवल शोर है
संगीत नही ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
मर्यादा और परंपराओं की
दीवार लिए
जिनकी ओट में
छिप जाती है
तुम्हारी दुर्बलता
तुम्हारा असंयम,
तुम्हारा अभिमान
मुझे पाने की
तुम्हारी अभिलाषा
निचोड़ लेती है
मेरा बूंद बूंद रक्त
क्षत विक्षत
मेरी आत्मा के
अनेकों रिसते घाव
तुम्हे दिखाई नही देते।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
सहानुभूति और
संवेदनाओं के
पुष्प लिए
जिनमे मात्र
आकर्षण है रंगों का
सुगंध नही है
समर्पण की
पाना चाहते हो
स्पर्श करना चाहते हो
पर दम तोड़ देते हैं
तुम्हारे सारे प्रयत्न
देह की चौखट पर ही
छू नही पाते हो
कभी हृदय को
जान नही पाते हो
अंतर्मन को,
देख नही पाते हो
मेरा अनुपम सौंदर्य
अद्भुत श्रृंगार,
जो सिर्फ तुम्हारे लिए है ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
पाश्चाताप और
आत्मग्लानि के अश्रु लिए
जो छलक उठते है
हर बार
मेरे विध्वंस के बाद
तुम्हारी आँखों से,
बढ़ जाती है
मेरी वेदना
मेरी पीड़ा
कई गुना
तुम्हे इस तरह
पराजित,
लज्जित देख
आखिर मैं ही तो हूँ
तुम्हारी शक्ति
तुम्हारा सौंदर्य
किंतु मेरे अस्तित्व
पर तुम्हारा
यह मौन
स्वयं पतन
है तुम्हारा
और कारण है
मेरी पीड़ा
मेरी वेदना
मेरे दुखों का
मैं “अपराजिता”
पराजित हूँ
तुम्हारे झूठ से,
दोगलेपन से ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Sunday, April 1, 2018

प्रेम

मेरे हो जाना जैसे भी,
मुझको पा लेना कैसे भी,
लेकिन मन के अंतर-तम में
कोई खाली जगह न रखना,
मुझको अपना कभी न कहना,
वो एक सुंदर कोना दिल का,
जिस पर मेरा नाम लिखा है
वह भी तुम हो सच को जानो,
मैं क्यों हूँ यह भी पहचानो,
मुझको अपना जब कह दोगे
दिल के दो हिस्से कर दोगे,
तुम ही दोनों लेकिन तुमको
अब ये सुंदर भ्रम होगा,
दो हिस्सों मे बंट जाने का
तुमको न कोई गम होगा,
खुद से खुद को मांगोगे
अलग अलग पहचानोगे,
अरमानो के सुमन सुगंधित,
मानस तट अति-उर्वर ऊर्जित,
नित्य नई आकांक्षा होगी
प्रतिपूर्ण पर तृप्ति न होगी,
प्रेम-रज्जु से बंधा हुआ मैं
नैन-शरों से सधा हुआ मैं,
निज मन से क्या भाग सकूंगा
स्वयं स्वार्थ को त्याग सकूंगा,
तुम मुझसे आस लगाओगे
उत्सव उल्लास मनाओगे,
पर जब पूरी आस न होगी
मेरी प्रतिमा पास न होगी,
बिखरोगे टूट जाओगे
कैसे खुद को समझाओगे,
रिक्त हुआ जो तुममे तुमसे
भ्रम के तम में,भय से भ्रम से,
विरह बवंडर का नित आश्रय
देह दृष्टि का अतिशय क्षय,
प्रेम व्यथा का कारण है
अनुचित यह उदाहरण है,
चिरानंद सर्वत्र सकल जो
माया के विक्षेप प्रबल को
काट नही पाता है
प्रेम विरह हो जाता है।
किन्त नही ये नियति प्रेम की,
अन्तर्मन है दृष्टि दैव की
निज प्रभुता का परिचायक हूँ
मैं सदैव सत्य सहायक हूँ,
मेरे संग प्रेम डगर पर चल
अनुभव कर अम्बर जल भूतल,
कण कण से खुद को जोड़ जरा
तेरी छवि है यह वसुंधरा,
सागर तुम ही गागर तुम ही
करुणा तुम ही आदर तुम ही,
कहीं भेद नही कहीं खेद नही
कहीं व्याधि नही कहीं स्वेद नही,
तुम अश्रुधार तुम ही पीड़ा
तुम रणी रथी तुम ही क्रीड़ा,
जान सको पहचान सको
तुम ही सृष्टि यह मान सको,
विकसित करने को यही दृष्टि
मैं हूँ जग है और है सृष्टि,
अपना कहना सीमाओं में
बंध कर रह जाना होता है,
अपनापन तो जल धारा में
मिल कर खो जाना होता है
यही तुम्हारा कुशल क्षेम है
यही नियति है यही “प्रेम” है।
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Monday, March 26, 2018

पीड़ा

टूट चुका है कोना कोना
खंड हृदय के जोड़ सकूं ना,
अरसा बीता सुख को छोड़े
मुस्कानों ने नाते तोड़े,
सुबह बुझी सी बोझिल बेमन
निशा विषैली चीखे उर नम,
पर तुम क्या ठुकराओगी नही
पीड़ा क्या तुम जाओगी नही!!
युग युग से हो साक्षी मन की
तुम हृदयों की पाती तन की,
मुझमे क्या अवशेष तुम्हारा
नीर अश्रु का है सब खारा,
बिंधे चुभे हैं कांटे कितने
कोई जगह न बाकी तन में,
मृदु शीतल सुवास लाओगी नही
पीड़ा क्या तुम जाओगी नही!!!
अरमानों के मेले आते
उम्मीदों के राग सुनाते,
साहस सीने से लग जाता
मंजिल से जुड़ जाता नाता,
लेकिन तेरी बंदी बनकर
थम जाती हूँ रुँध थक-कर,
पथ से अवरोध हटाओगी नही
पीड़ा क्या तुम जाओगी नही!!
बड़े धैर्य से तूने पाला
नित्य निरंतर जपती माला
इष्ट नही हैं सुनने वाले
आँचल में माँ मुझे छुपा ले
व्यर्थ हुए हैं सारे करतब
घात लगाए बैठे हैं सब
दुर्बलता का श्राप मिटाओगी नही
पीड़ा क्या तुम जाओगी नही।।
विधना का संदेश सुना दे
अंतिम तट पर मुझको ला दे,
नियति नीति कर्म प्रबल की
दृष्टि ज्ञान की दे तर्पण की,
अपराजिता अनंत असीमा
सत चित रूप प्रबुद्ध प्रवीना,
मुझसे मेरी भेंट कराओगी नही
पीड़ा क्या तुम जाओगी नही।।
………..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Thursday, March 22, 2018

अपराजिता

उस रोज तुम्हे टोका नही
तुम जा रहे थे मैंने तुम्हें रोका नही
सुबह तुम्हारे सुरों की लालच में
अक्सर देर से आती थी
खिड़कियों से झांकती
धूप मुस्कुराती थी ।
मै नींद का दामन थामे
सपनो की पगडंडियों पर,
जब भी चलने की कोशिश करता
तुम्हारा तीव्र स्वर उलाहना देता..
मैं जागी हूँ और तुम
नींद को गले लगाए हो
वाह जी क्या खूब निभाये हो..
मैं सजल नेत्रों से तुम्हे निहारता
तुम्हारे माथे पर हाथ फेर कहता,
देख तेरा हाथ पकड़े हूँ
मै तुझसे अलग थोड़े हूँ,
तेरी पीड़ा तेरी तकलीफ का साझेदार हूँ
मैं वही तेरा चहेता किरदार हूँ
तुम निश्छल सागर सी अपनी
पीड़ा के ज्वार समेट शांत हो जाती,
और अत्यंत अचंभित चकित
सिरहाने खड़ी जिंदगी मुस्कुराती
उस रोज ऐसा हुआ नही
तुमने पुकारा पर मैंने सुना नही ।
तीन दिवस से जागी
आंखों की प्यास में थी
नींद उसी दिन की तलाश में थी,
तुम्हारी सखी हमजोली पीड़ा
तुम्हे बड़ी तीव्रता से तोड़ रही थी
सुबह दूर खड़ी
सिसक सिसक कर रो रही थी,
यंत्र तंत्र सब बेबस लाचार थे
बुत बने खड़े सारे पहरेदार थे,
हाय विधाता ! वो वीभत्स स्वरूप,
संयंत्रों में जकड़ा तुम्हारा रूप,
देखा न गया
हाथ तुम्हारे हाथ से छूट सा गया
वाह रे !!निद्रा तेरा कपट जाल
आखिर भ्रमित कर गया
मैं फर्श पर बैठा सो गया
ठीक उसी क्षण नियति मुस्कुराई
तुम हृदय से चीखी चिल्लाई
किंतु हाय कोई ध्वनि मुझ तक न आई।
स्तब्ध स्तंभित अवाक
सहसा खुली जब मेरी आँखे
काल चक्र तुम्हे समेट चुका था
मैं हार वो जीत चुका था….
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विंनीत”

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो कैसे जानोगे तुमने देखा ही नही अपने अंतर्मन में कभी। हर्ष विषाद से आच्छादित अनंत असीमित किंतु अनुशासित बेहद सहज सरल धवल उज्...