क्या तुम जानते हो
कैसे जानोगे
तुमने देखा ही नही
अपने अंतर्मन में कभी।
हर्ष विषाद से आच्छादित
अनंत असीमित
किंतु अनुशासित
बेहद सहज सरल
धवल उज्ज्वल
प्रतिपल तुम्हारे
इंतजार में
तुम्हारे हाथ थामे
बाहर आने को बेकरार
जैसे हवाओं के संग खुशबू
लाती है फिजा में बहार।
क्या तुम मानते हो
कैसे मानोगे
तुम्हारा यह व्यवहार
प्रतिपल ऐसा तिरस्कार
मुझे रोक लेता है
पाने नही देता है तुम्हें
मैं जो तुम्हारी
अपनी जिंदगी हूँ
हाँ....
मैं जो तुम्हारी
अपनी जिंदगी हूँ।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'