Friday, May 1, 2020

याद है मुझको खोना तेरा

मुझसे लिपटकर रोना तेरा
याद है मुझको खोना तेरा।
अश्रुमयी तुम द्वार खड़ी तुम
मुझको जाते टोक सकी ना।
क्षण निष्ठुर निर्मोही कैसा
हाय मुझे क्यों रोक सकी ना।
बेसुध होकर सोना तेरा
याद है मुझको खोना तेरा।
एक समय था तेरे बिन
न दिन कटते न रात गुजरती
खुशियों की रौनक होती
जब जब तेरी मुस्कान उभरती।
खाली घर का कोना तेरा
याद है मुझको खोना तेरा।
कैसी विवशता कैसी उलझन
मैं क्यों कुछ भी समझ न पाया।
नियति ने ऐसा खेल रचाया
मन को पागल कर भरमाया।
निराश्रय हो रोना तेरा
याद है मुझको खोना तेरा।

लम्हे

वक़्त की क़ैद से
छूटे लम्हे,
बैठ तू साथ मेरे
दिल से कहते लम्हे।
है उम्र भर की थकन
आके छू ले मेरा मन
थाम ले हाथ मेरा
मुझसे कहते लम्हे
लफ्जों का दौर न हो
सिर्फ खामोशी हो
दिल ही दिल बात करें
यूँ महकते लम्हे
तू बयां दर्द करे
मेरी आँखें छलके
हो मुलाकात ये ऐसी
कि सिसकते लम्हे।
गिला मुझको नही है
यूँ तेरे जाने का
कुछ अधूरा ही रहा
आहें भरते लम्हे।
मेरी सांसो की कसम
तुमको आना होगा
साथ जन्मों का है,
कहे बदलते लम्हे।

मैं तुम्हारी कहानी का किरदार हूँ

मेरी कोई कहानी नही
मैं तुम्हारी कहानी का किरदार हूँ।
तुम चलो जिस डगर वो ही मेरी डगर
मुश्किलों के दौर में वफ़ादार हूँ।
चोट तुमको लगी टूट मैं भी गया
दर्द को दर्द का इल्म हो ही गया।
मेरे ग़म का कोई आसरा ही नही
संग ग़म में तेरे सिलसिलेवार हूँ।
खुद से ज्यादा भरोसा जो तुमने किया
उस भरोसे की बुनियाद हिल सी गई।
देखता ही रहा कुछ कर न सका
सच कहूं मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ।
छोड़ कर तुम अधूरी कहानी चले
आग हर पल मेरे हृदय में जले।
पार होगा ये दरिया भला किस तरह
नाव तुम हो मैं केवल पतवार हूँ।
तुमने छोड़ा जहां मुझसे कुछ न कहा
जो भी कहना था वो दिल मे ही रहा
शब्दों में ढूढ़ता फिर रहा दर बदर
पथ से भटका हुआ मैं कलमकार हूँ।

हथेलियों की छाप

वह बहुत खुश थी आज
और मैं उससे भी अधिक खुश था
उसे खुश देख।
वह मेरी हथेलियों के साथ
अपनी हथेलियों की छाप
लेना चाहती थी
आंगन की दीवार पर।
सहेज कर रखना चाहती थी
हमारे प्रेम की एक अनूठी निशानी
हमारे जाने के बाद भी।
उसकी मासूमियत में डूबा
मैं इनकार नही कर पाया।
गहरे गुलाबी रंग में डूबी
हमारी हथेलियों की छाप
आंगन की दीवार पर ली गई।
एकदम सटीक चमकदार
बिल्कुल उसके व्यक्तित्व की तरह
उसकी हथेली की छाप
स्पष्ट नजर आ रही थी।
और अपनी छाप को देखते हुए
मेरी हथेलियां और मेरी जुबां
लड़खड़ा रही थी
नही जान पाया मैं
उस लड़खड़ाहट की वजह
उस वक़्त।
आज जबकि वह नही है।
मेरी पलके अश्रु में डूबी
आंगन की दीवार पर
अपनी हथेलियों की छाप पर
हथेलियों को रखती,
उसकी हथेलियों की छाप को
निहारती है।
उसकी हथेलियों की छाप
आज भी उतनी ही स्पष्ट और
चमकदार है।
मानो कहना चाहती हो
कि तुम्हारी हथेलियां
केवल रंग में डूबी थी
जबकि मैने रंग और प्रेम
दोनों में डुबाया था।
हकीकत यही थी कि
तुममे खोकर मैंने
खुद को पाया था।

आखिर तुम गीतों में आए

स्वप्नों की पगडंडी छोड़
विरह कुंज से नाता तोड़,
शब्द सुरभि चितराग भव
मधुर मंद मधुमय मुस्काये।
आखिर तुम गीतों में आए।
सावन की रिमझिम फुहार में
पपीहे की पहली पुकार में,
ऊंच नीच की बाते छोड़
वर्षों का मौन व्रत तोड़
अपनेपन के बोल सुनाए।
आखिर तुम गीतों में आए।
एक पहेली सा जीवन है
ना जाने कितनी उलझन है,
कहने वालों से मुँह मोड़
उम्मीदों से रिश्ता जोड़
मेरी हर उलझन सुलझाए।
आखिर तुम गीतों में आए।
शाख पे आया क्यों न फूल
मुझे याद है मेरी भूल
प्रेम नीर का अनुक्रम टूटा
सहानुभूति से रहा अछूता
सारे शिकवे गिले भुलाए।
आखिर तुम गीतों में आए।

बात छोटी थी बड़ी हो गई

बात छोटी थी
बड़ी हो गई
वो लड़की
अपने पैरों पर
खड़ी हो गई
होना था वही
जो हुआ है अभी
फिर शोर क्यों है
कि गड़बड़ी हो गई।
तुम अहम के अधीन
भ्रम रच रहे नवीन
भूलकर मूल को
बांट रहे शूल को
तुम जो अस्तित्व हो
तो उससे ही अस्तित्व है
शक्ति के प्रतीत्व का
वह अभीष्ट तत्व है।
क्यो नही स्वीकारते
जो चिर सत्य है
तुम्हारे ही समान
उसका भी अमर्त्य है।
सृष्टि की संभावना को
अवरुद्ध क्यों कर रहे
जीवनी शक्ति को
क्रुद्ध क्यों कर रहे।
अपने ही लहू का रंग
अलग क्यों दिख रहा
कौन है अज्ञानता का
लेख जो लिख रहा।
विनाश ही प्रवृत्ति है
अहम और अज्ञान की
बाते सारी झूठ है
तुम्हारे स्वाभिमान की।
कृतज्ञता के भाव से
तुम्हे पुकारते हुए
आशीष दो उसे कि
वह आसमान को छुए।
गर्व से कहो कि
सब बंधनो से बरी हो गई
हां! वो लड़की
अपने पैरों पर खड़ी हो गई।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो कैसे जानोगे तुमने देखा ही नही अपने अंतर्मन में कभी। हर्ष विषाद से आच्छादित अनंत असीमित किंतु अनुशासित बेहद सहज सरल धवल उज्...