Thursday, July 13, 2023

पीड़ाएं

मैंने लिखी अपनी पीड़ा
तो कुछ पीड़ाओं ने पढ़ा।

पढ़कर वे इकट्ठा हुईं
शहर के बीचों बीच
कंपनी बाग के
सबसे पुराने
वृक्ष की छांव के नीचे।
एक दूसरे से लिपट कर
वे रोईं
हाँ वे सब रोईं
बहुत रोईं
इतना रोईं कि
आकाश में उभर आये
काले बादल और
आकाश भी रो पड़ा
उनसे लिपट।

बारिश हुई
तो भीगते
चहकते
नजर आये
कुछ बच्चे
कुछ युवा
और कुछ बूढ़े।
मौसम में घुल गई
मिट्टी की सोंधी महक
धूल गई चेहरों पर छाई
मलिनता।

लिखने से कम नही होती है

लिखने से
कम नही होती है
मेरी पीड़ा
फिर भी लिखती हूँ
शब्दों में बांध कर रख देती हूँ
पन्नों के बीच हिफाजत से।

नहीं पाओगे अब मुझे

 मैंने कहा 

तुमने नही सुना 

मैंने लिखा 

तुमने नही पढ़ा 

मैंने फिर कहा

तुमने फिर सुना नही

मैंने फिर लिखा 

तुमने फिर पढ़ा नही

मैं रोई 

हाँ मै बहुत रोई 

तुम जा रहे थे 

मेरे अश्रु तुम्हें रोक ना सके 

अश्रुधार के पीछे

छिपी अपार पीड़ा

आँखों में बिलखते प्रेम को 

तुम देख ना सके

तुम चले गए 

और कुछ दिनों बाद 

मैं भी चली गई । 


एक दिन 

तुम लौट आए

हाँ आखिर जब तुम लौट आए 

मैंने देखा तुम्हें 

बेहद बदहवास और

बिखरे हुए थे। 

ढ़ूंढ़ रहे थे मुझे 

मेरी हर एक निशानी में 

पर 

अब मैं बाकी नही थी 

तुम्हारी किसी कहानी में 

तुम मुझे न सुन सकते हो 

न देख सकते हो अब । 

मै सीमा 

तुम्हारी सीमाओं से परे 

अब भी 

सुन सकती हूँ तुम्हें 

देख सकती हूँ तुम्हें । 


आत्म ग्लानि में डूबे

मेरी तस्वीर को निहारते 

क्यों ढ़ूंढ़ रहे हो 

उन सवालों के जवाब 

जिनका उत्तर मैं हूँ। 

प्यारे भईया !

सुनो मेरी 

छोड़ दो 

अपनी जिद

लाख कोशिश करो 

नही पाओगे 

अब मुझे दोबारा। 


 

  


 

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