Tuesday, January 15, 2019

हम और तुम

*हम और तुम*

जहां की रंजिशों में प्रेम के
गीत रचेंगे हम और तुम
अब यादों के राजमहल में
रोज मिलेंगे हम और तुम
तुम्हारे सुरों के संगीत पर
थिरकता मिलेगा हर कोना
कमरे गलियारे चौखट
खिड़की आंगन और बिछौना

तुम्हारी कलम के इर्द गिर्द
टहलता चाँद
तुम्हारी कही हर बात
फक्र से बेझिझक दोहराऊंगा
स्नेह के झूले पर बैठ
तुझे हृदय से लगाऊंगा
उलझन की पुड़ियों में
रेशमी गांठ लगाएंगे हम और तुम
हर हाल में मुस्कुराते
नजर आएंगे हम और तुम।

      ...देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

तुम्हारे बिना

लब खामोश रहे लेकिन
ख्वाहिश गूंजी सूने भवनों में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।

तेरा मेरा नाता क्या है
सिसक सिसक कर पीड़ा रोये
मुस्कानों से क्षमा याचना
करती अपने नैन भिगोए।

दर्द बहुत दे जाती हूँ
कितना तुझको तड़पाती हूँ
फिर भी मेरी हमराह बनी
क्यों तूने ऐसी राह चुनी।

कोई जगा न पाए तुझको
सोई तू ये किन शयनों में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।

घना कुहासा सर्द रात है
तारों की पूरी बारात है
स्वप्न लोक के किस मधुबन में
चाँद कहाँ तुम किस आंगन में

विरह अग्नि में झुलसे तन मन
आकृतियों से सूना दर्पण
अपनों की है भीड़ बड़ी
पर छूट गया वो अपनापन

थक हार कर तुझको आखिर
ढूंढू तेरे संचयनो में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।

   -देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

चीनी का बोरा

लहजे में फिजा में
मिठास है घर मे
शीतल सुमन सुवास है
प्रभास है घर में।

गमो की घुड़दौड़ पर
नन्ही लगाम है
सुबह सुहानी
मदमस्त शाम है।

हवा सम्हल जा
तुनकमिजाज है घर में
पंख नही है मगर
परवाज़ है घर में।

नन्ही है नटखट
चिरैया सी है
फुदकती आंगन में
गौरइया सी है।

मासूम से सवाल है
जवाब हैं घर में
स्लेट है कापी कलम
किताब है घर में।

सिक्कों भरी गुल्लक है
इतवार का दिन है
आज खिलौनों के
बाजार का दिन है।

नाजुक सी मिन्नतों का
दरबार है घर में
क्या लूँ कि अभी
चीजों का अंबार है घर में।

कौन अधिक प्रिय है
मीठी तकरार है
बेटे से शुकून है
कि बेटी से करार है।

नाराज है कोई
फिर आवाज है घर में
रूठने मनाने का
रिवाज़ है घर में।

नित नए नाम से
पिटता ढिंढोरा है
याद है किसी ने कहा
वो 'चीनी का बोरा' है।

तू है नही मगर
तेरी पुकार है घर में
तेरे बिना सूना
संसार है घर मे।

(यह कविता मेरी छोटी बहन कवियित्री सीमा वर्मा'अपराजिता' और उसकी सुंदर स्मृतियों को समर्पित है।)

-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो कैसे जानोगे तुमने देखा ही नही अपने अंतर्मन में कभी। हर्ष विषाद से आच्छादित अनंत असीमित किंतु अनुशासित बेहद सहज सरल धवल उज्...