लब खामोश रहे लेकिन
ख्वाहिश गूंजी सूने भवनों में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।
तेरा मेरा नाता क्या है
सिसक सिसक कर पीड़ा रोये
मुस्कानों से क्षमा याचना
करती अपने नैन भिगोए।
दर्द बहुत दे जाती हूँ
कितना तुझको तड़पाती हूँ
फिर भी मेरी हमराह बनी
क्यों तूने ऐसी राह चुनी।
कोई जगा न पाए तुझको
सोई तू ये किन शयनों में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।
घना कुहासा सर्द रात है
तारों की पूरी बारात है
स्वप्न लोक के किस मधुबन में
चाँद कहाँ तुम किस आंगन में
विरह अग्नि में झुलसे तन मन
आकृतियों से सूना दर्पण
अपनों की है भीड़ बड़ी
पर छूट गया वो अपनापन
थक हार कर तुझको आखिर
ढूंढू तेरे संचयनो में
तेरी आँखों के दो आंसू
आ टपके मेरे नयनों में।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"
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