बात कुछ भी नही
बात है बात की
तेरी मेरी पुरानी
मुलाक़ात की।
मुझको जाते हुए
तुमने रोका नहीं
तेरे आँसू बहे
मैंने टोका नहीं।
द्वार पर तुम खड़ी
द्वार भी रो पड़ा
हे विधाता ये कैसा
समय आ पड़ा
दुख विरह वेदना
और संताप की
कैद क्यों हो गई
वो घड़ी रात की।
बात कुछ भी नही
बात है बात की ॥
-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
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