Thursday, April 12, 2018

स्त्री

स्त्री
शौक रखती है जीत के
मुस्कुराना जानती है
दर्द को गले लगाकर
हराना जानती है
न जाने कितनी बार
हुई पीड़ा बृहद अपार
हाथ नही जोड़ती
टूट जाती है
उम्मीद नही छोड़ती
पलक पुलक अधीर सी
बांधकर रखती है
स्थिर हृदय सुधीर सी
खुद बंध जाती है
स्नेह से, ममता से
नही भूलती है,
कोई भी किरदार
संजीदा,चंचल
मासूम- मजेदार
तुम भूल जाओ
खो जाओ
अपने मे कहीं
वो याद रखती है
सोमवार से लेकर
हर इतवार,
सिर्फ तुम्हारे लिए
न जाने कौन-कौन से
व्रत,संकल्प लिए
लड़ जाती है
हर बला से
हर ब्यवधान से
जो तुम्हारी राह रोके
खड़े है
तुम्हे मालूम नही
और तुमने देखे भी नही
जश्न में डूबे पड़े हैं
जो तुम्हारे दिन
तुम्हारी रातें
उनके पीछे छुपी है
कितनी अनसुनी
अनकही बातें
कितनी पीड़ा
कितनी कराह है
यूँ ही नही आसान
तुम्हारी हर राह है,
पर क्या तुम
समझ पाओगे,
जान पाओगे
शायद नही
शायद नही
क्योकि तुम बेहद
व्यस्त हो
अपने मोद में
अपने प्रमोद में
मदमस्त हो,
सुख में,ऐश्वर्य में
पर शायद
'आनंद' में नही
'आनंद'
जिसे वो जानती है
जीती है,गाती है
रोती है ,अश्रु बहाती है
तुम्हारे साथ मिलकर
उत्सव मनाती है
और तुम एक 'स्त्री' के इतर
उसे कुछ नही जानते हो
न पहचानते हो
बस बांध देते हो
रिश्तों के अबूझ
सवालों में
जिनके उत्तर नही है
तुम्हारे भी पास,
तुम्हे होगा एहसास
बेशक,जरूर
लेकिन तुम जता नही पाओगे
बस अकेले अंधेरे में कहीं
तन्हा उदास, मजबूर
रोओगे,पछताओगे
छोड़ना चाहोगे
अपना सुंदर संसार भी
तब भी
कहीं से
एक आवाज आएगी
तुम्हे झकझोरेगी
जगाएगी
तुम आज भी
अकेले नही हो
देखो अपने हृदय की
गहराइयों में
मैं हूँ आज भी
तुम्हारे पास
सदा से
तुम्हारे साथ थी
तुम अकेले नही हो।
और मिल जायेगी
तुम्हे जीने की उम्मीद
फिर से
और वो मुस्कुराएगी
उसी 'आनंद' में
जो परे है
तुम्हारी सोच
तुम्हारी कल्पनाओं से
फिर से ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

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