Sunday, April 1, 2018

प्रेम

मेरे हो जाना जैसे भी,
मुझको पा लेना कैसे भी,
लेकिन मन के अंतर-तम में
कोई खाली जगह न रखना,
मुझको अपना कभी न कहना,
वो एक सुंदर कोना दिल का,
जिस पर मेरा नाम लिखा है
वह भी तुम हो सच को जानो,
मैं क्यों हूँ यह भी पहचानो,
मुझको अपना जब कह दोगे
दिल के दो हिस्से कर दोगे,
तुम ही दोनों लेकिन तुमको
अब ये सुंदर भ्रम होगा,
दो हिस्सों मे बंट जाने का
तुमको न कोई गम होगा,
खुद से खुद को मांगोगे
अलग अलग पहचानोगे,
अरमानो के सुमन सुगंधित,
मानस तट अति-उर्वर ऊर्जित,
नित्य नई आकांक्षा होगी
प्रतिपूर्ण पर तृप्ति न होगी,
प्रेम-रज्जु से बंधा हुआ मैं
नैन-शरों से सधा हुआ मैं,
निज मन से क्या भाग सकूंगा
स्वयं स्वार्थ को त्याग सकूंगा,
तुम मुझसे आस लगाओगे
उत्सव उल्लास मनाओगे,
पर जब पूरी आस न होगी
मेरी प्रतिमा पास न होगी,
बिखरोगे टूट जाओगे
कैसे खुद को समझाओगे,
रिक्त हुआ जो तुममे तुमसे
भ्रम के तम में,भय से भ्रम से,
विरह बवंडर का नित आश्रय
देह दृष्टि का अतिशय क्षय,
प्रेम व्यथा का कारण है
अनुचित यह उदाहरण है,
चिरानंद सर्वत्र सकल जो
माया के विक्षेप प्रबल को
काट नही पाता है
प्रेम विरह हो जाता है।
किन्त नही ये नियति प्रेम की,
अन्तर्मन है दृष्टि दैव की
निज प्रभुता का परिचायक हूँ
मैं सदैव सत्य सहायक हूँ,
मेरे संग प्रेम डगर पर चल
अनुभव कर अम्बर जल भूतल,
कण कण से खुद को जोड़ जरा
तेरी छवि है यह वसुंधरा,
सागर तुम ही गागर तुम ही
करुणा तुम ही आदर तुम ही,
कहीं भेद नही कहीं खेद नही
कहीं व्याधि नही कहीं स्वेद नही,
तुम अश्रुधार तुम ही पीड़ा
तुम रणी रथी तुम ही क्रीड़ा,
जान सको पहचान सको
तुम ही सृष्टि यह मान सको,
विकसित करने को यही दृष्टि
मैं हूँ जग है और है सृष्टि,
अपना कहना सीमाओं में
बंध कर रह जाना होता है,
अपनापन तो जल धारा में
मिल कर खो जाना होता है
यही तुम्हारा कुशल क्षेम है
यही नियति है यही “प्रेम” है।
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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