Friday, April 20, 2018

आखिर क्यों तुम समझ न पाए

आखिर क्यों तुम समझ न पाए

कब से बैठी आस लगाये
कितने दिवस के बाद तुम आये
मुझको है जाने की जल्दी
आखिर क्यों तुम समझ न पाए
वक़्त बड़ा बेरहम हुआ है
तुम्हे मिला न मेरा हुआ है
बेबस और लाचारी सी है
श्वासें भारी भारी सी हैं
विकट अश्रु के बादल छाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

तुमको मैंने दर्पण जाना
पर तुमने ही न पहचाना
टुकड़े टुकड़े तोड़ रही है
कैसे मुझे निचोड़ रही है
पीर प्रलय के अक्स दिखाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

एक कदम भी चलना मुश्किल
दृश्य लक्ष्य के लगते धूमिल
आओ फिर से साहस भर दो
कलुषित मन को अरुणिम कर दो
पुष्प उम्मीदों के मुरझाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

मद्धिम सा उजियारा देखा
कल फिर टूटा तारा देखा
अंतस में एक इच्छा जागी
किंतु हाय ! मै बड़ी अभागी
शब्द हृदय में रही छुपाये
आखिर क्यों तुम समझ न पाये

उत्सव के दिन साथ गुजरते
पीड़ा में क्यों तन्हा रहते
खुद से कितनी बातें कर लूं
तुम बिन रिक्त रहूं,जो भर लूं
मन का हर संदेश सुनाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए

अब आये भी तो गैरों जैसे
हाल न पूछा अपनों जैसे
हृदय लिपट कर जो रो पाती
शायद फिर जीवित हो जाती
प्रतिक्षण थी बाहें फैलाये
आखिर क्यों तुम समझ न पाए
आखिर क्यों तुम समझ न पाए।

            देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

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