Tuesday, April 3, 2018

दोगलापन

क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
अपनत्व का मुखौटा ओढ़े
तारीफों के पुल बांधते
झूठी तारीफों के पुल
जिनके पार तुम्हारी
अनगिनत अतृप्त
आकांक्षाएं
मेरा परिहास करती सी
मेरे अस्तित्व पर
प्रश्नचिन्ह लगाती ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
प्रेम की व्याख्या लिए
जिन पर तुम स्वयं
खरे नही उतरते
थोपना चाहते हो
झूठ और फरेब में डूबे
सम्मान के लुभावने शब्द
जिनमे केवल शोर है
संगीत नही ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
मर्यादा और परंपराओं की
दीवार लिए
जिनकी ओट में
छिप जाती है
तुम्हारी दुर्बलता
तुम्हारा असंयम,
तुम्हारा अभिमान
मुझे पाने की
तुम्हारी अभिलाषा
निचोड़ लेती है
मेरा बूंद बूंद रक्त
क्षत विक्षत
मेरी आत्मा के
अनेकों रिसते घाव
तुम्हे दिखाई नही देते।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
सहानुभूति और
संवेदनाओं के
पुष्प लिए
जिनमे मात्र
आकर्षण है रंगों का
सुगंध नही है
समर्पण की
पाना चाहते हो
स्पर्श करना चाहते हो
पर दम तोड़ देते हैं
तुम्हारे सारे प्रयत्न
देह की चौखट पर ही
छू नही पाते हो
कभी हृदय को
जान नही पाते हो
अंतर्मन को,
देख नही पाते हो
मेरा अनुपम सौंदर्य
अद्भुत श्रृंगार,
जो सिर्फ तुम्हारे लिए है ।।
क्यों खड़े हो जाते हो
मेरे सम्मुख
पाश्चाताप और
आत्मग्लानि के अश्रु लिए
जो छलक उठते है
हर बार
मेरे विध्वंस के बाद
तुम्हारी आँखों से,
बढ़ जाती है
मेरी वेदना
मेरी पीड़ा
कई गुना
तुम्हे इस तरह
पराजित,
लज्जित देख
आखिर मैं ही तो हूँ
तुम्हारी शक्ति
तुम्हारा सौंदर्य
किंतु मेरे अस्तित्व
पर तुम्हारा
यह मौन
स्वयं पतन
है तुम्हारा
और कारण है
मेरी पीड़ा
मेरी वेदना
मेरे दुखों का
मैं “अपराजिता”
पराजित हूँ
तुम्हारे झूठ से,
दोगलेपन से ।।
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

No comments:

Post a Comment

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो कैसे जानोगे तुमने देखा ही नही अपने अंतर्मन में कभी। हर्ष विषाद से आच्छादित अनंत असीमित किंतु अनुशासित बेहद सहज सरल धवल उज्...