हां..ये वही खेत है
वही आम का पेड़ है
जिसकी टहनियों की
बाहें थामे
मुस्कुराती हुई सी तुम
बेहद चंचलता से
टहनियों के बीच से
झांकती
मुझे आवाज देती
उस एक पल को
कैद करने की
जिद करती
हां..कैद है वो
पल मेरी आंखों में
ठीक वैसे ही
जैसे तुम चाहती थी
और कैद हो गई हो
तुम भी बिल्कुल
उस पल की तरह
मेरी आँखों मे
मेरे हृदय में
जब चाहूं
जहां चाहूं
तुम्हे देख सकता हूँ
तुमसे बातें कर सकता हूँ
और तुम मिलोगी
वहीं पर मुझे
हर बार,बार बार
वैसे ही मुस्कुराती हुई
आम की टहनियों की
बाहें थामे ।
(सीमा वर्मा"अपराजिता"की स्मृति में।)
-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"
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