Thursday, March 22, 2018

अपराजिता

उस रोज तुम्हे टोका नही
तुम जा रहे थे मैंने तुम्हें रोका नही
सुबह तुम्हारे सुरों की लालच में
अक्सर देर से आती थी
खिड़कियों से झांकती
धूप मुस्कुराती थी ।
मै नींद का दामन थामे
सपनो की पगडंडियों पर,
जब भी चलने की कोशिश करता
तुम्हारा तीव्र स्वर उलाहना देता..
मैं जागी हूँ और तुम
नींद को गले लगाए हो
वाह जी क्या खूब निभाये हो..
मैं सजल नेत्रों से तुम्हे निहारता
तुम्हारे माथे पर हाथ फेर कहता,
देख तेरा हाथ पकड़े हूँ
मै तुझसे अलग थोड़े हूँ,
तेरी पीड़ा तेरी तकलीफ का साझेदार हूँ
मैं वही तेरा चहेता किरदार हूँ
तुम निश्छल सागर सी अपनी
पीड़ा के ज्वार समेट शांत हो जाती,
और अत्यंत अचंभित चकित
सिरहाने खड़ी जिंदगी मुस्कुराती
उस रोज ऐसा हुआ नही
तुमने पुकारा पर मैंने सुना नही ।
तीन दिवस से जागी
आंखों की प्यास में थी
नींद उसी दिन की तलाश में थी,
तुम्हारी सखी हमजोली पीड़ा
तुम्हे बड़ी तीव्रता से तोड़ रही थी
सुबह दूर खड़ी
सिसक सिसक कर रो रही थी,
यंत्र तंत्र सब बेबस लाचार थे
बुत बने खड़े सारे पहरेदार थे,
हाय विधाता ! वो वीभत्स स्वरूप,
संयंत्रों में जकड़ा तुम्हारा रूप,
देखा न गया
हाथ तुम्हारे हाथ से छूट सा गया
वाह रे !!निद्रा तेरा कपट जाल
आखिर भ्रमित कर गया
मैं फर्श पर बैठा सो गया
ठीक उसी क्षण नियति मुस्कुराई
तुम हृदय से चीखी चिल्लाई
किंतु हाय कोई ध्वनि मुझ तक न आई।
स्तब्ध स्तंभित अवाक
सहसा खुली जब मेरी आँखे
काल चक्र तुम्हे समेट चुका था
मैं हार वो जीत चुका था….
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विंनीत”

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